टेलिविजन संस्कृति और हमारे बच्चे

टेलिविजन संस्कृति और हमारे बच्चे
यह सार्वभौमिक सत्य है कि संतान के लिये मां ही ज्ञान, संस्कार और व्यवहारिकता की प्रथम पाठशाला होती है परंतु इस वर्तमान संचार युग में मां के साथ इसमें एक और वस्तु शामिल हो गई है कहने को तो वह निर्जीव है परंतु उस निर्जीव वस्तु द्वारा प्रसारित विभिन्न कार्यक्रम कोमल बालमन में इतनी गहरी पैठ चुके हैं कि आज मां द्वारा अपने बच्चो को दिये गये संस्कार और ज्ञान उस निर्जीव वस्तु की चकाचौंध भरी दुनिया में कहीं खोते से प्रतीत हो रहे हैं। जी हां मैं बात कर रहा हूं टेलिविजन और उस पर प्रसारित होने वाले कार्यक्रमों की जिसमें अभिनेता-अभिनेत्री द्वारा किसी काल्पनिक कथा पर किया गया अभिनय ही हमारे बच्चो के व्यवहार में वास्तविक रूप में दिखाई देने लगा है। तो क्या हम टेलिविजन देखना छोड़ दे, यदि मैं यह कहूंगा तो यह घोर अव्यवहारिक बात होगी तो फिर क्या करें कि टेलिविजन केवल मनोरंजन के एक साधन तक ही सीमित रहे न कि हमारे जीवन के सिद्धांतो पर प्रभाव डालने लगे। इसे समझाने के लिये मैं एक दृश्य आपके सामने रखकर उसका विश्लेषण करना चाहूंगा।
कल्पना कीजिये कि हमारे किसी घर के टेलिविजन में किसी काल्पनिक कथा पर आधारित धारावाहिक में नायक या नायिका की मृत्यु का मार्मिक दृश्य चल रहा है। सहअभिनेता या सहअभिनेत्री ग्लिसरीन के नकली आंसुओ के साथ अपनी पूरी अभिनय प्रतिभा उस दृश्य को अधिक से अधिक मार्मिक बनाने में झोंक देते है। बार-बार फ्लेशबैक में मृत्यु को प्राप्त हो चुके नायक या नायिक की महानता को दर्शाते दृश्य उभरते है जो वातावरण को और गंभीर बनाते है और बड़ा ही करूणामयी पार्श्व संगीत उस मृत्यु के दृश्य को मार्मिकता की चरम सीमा तक पहुंचाता हैं। इस स्थिति में हम अपनी भावनाओ को किसी भी तरह से नहीं संभाल पाते और हमारे आंसू छलक जाते हैं, उस काल्पनिक दृश्य की पीड़ा वास्तविक रूप में हमारे अंदर समा जाती है। जब एक अबोध बालक इस रूप में अपने माता या पिता को देखता है तो वह स्वाभाविक रूप से यही समझता है कि जो टेलिविजन में दिखाया जा रहा है वही सत्य है और वह उसी काल्पनिक जीवन शैली का अनुसरण करने लगता है जो विभिन्न कार्यक्रमो के माध्यम से टेलिविजन में दिखाई जाती है तथा अपने बालमन के प्रश्नों के उत्तर समय का अभाव झेल रहे माता-पिता से पूछने के बजाय टेलिविजन के कार्यक्रमो के माध्यम से ढूंढने लगता है। अब बताईये इसमें क्या उसकी गलती है। हम सभी जानते हैं कि वह मृत्यु के रूदन का दृश्य पूर्णतः काल्पनिक है और वर्तमान कलियुगी धारावाहिको में सात-आठ एपीसोड के बाद मृत्यु को प्राप्त हो चुका वह नायक या नायिका पुनः जीवित रूप में हमारे सामने उपस्थित होकर हमें चौंका देगा परंतु उस समय का क्षणिक आवेग हमारे आंसुओ के रूप मे फूट पड़ता है।
तो इससे पहली हानि तो ये हुई कि हमने अपने अबोध बच्चे के सामने यह सिद्ध कर दिया कि टेलिविजन में जो भी दिखाया जाता है जीवन वैसा ही चकाचौंध भरा और भयानक उतार- चढ़ाव वाला है जबकि इस चकाचौंध को ही सत्य मान कर जीवन यापन कर रहे अभिनेता-अभिनेत्रियों का जीवन स्वयं मानसिक असंतुलन और झूठे रिश्तो के मकड़जाल में उलझा हुआ है। उनका टूटता विवाह गठबंधन और प्रत्यूषा बैनर्जी जैसी टीवी कलाकार द्वारा आत्महत्या का कदम यह सिद्ध करता है। जिस आनंदी का सशक्त किरदार प्रत्यूषा में जीवटता नहीं भर पाया ऐसे नकली किरदारो को हम स्वेच्छा से ढोकर उनका अनुसरण कर रहे हैं और हमारे बच्चे भी इसी घातक परंपरा को आगे बढा रहे हैं।
दूसरी हानि ये है कि मेरा मानना है कि प्रत्येक व्यक्ति में संवेदना की एक निश्चित सीमा होती है और जब हमनें अपनी सारी संवेदना सारी करूणा एक काल्पनिक पात्र अक्षरा या तुलसी की झूठी पीड़ा पर लुटा दी तो वास्तविक जीवन में जब कोई दुखी व्यक्ति हमारे सामने आयेगा तो हमारी संवेदना उसके लिये मर चुकी होगी हमारी करूणा जो टेलिविजन ने लूट ली है उसे हम उसके वास्तविक अधिकारी के समक्ष प्रकट नहीं कर पायेगें, हमे लगेगा अरे इससे अधिक दुख तो तुलसी का है अक्षरा का है। इस प्रकार हम नकली के प्रति तो संवेदनशील हो गये हैं लेकिन असली के प्रति हमारे मन में असंवेदनशीलता घर कर गई है। आपको सुनने में शायद मेरी ये बाते अटपटी लगे शायद आप इस विचार पर हंसी न रोक पायें परंतु इस लेख के माध्यम से मेरे अनुभव आपसे साझा कर रहा हूं और आशा करता हूं कि जब आप भी गंभीरतापूर्वक इस विषय में सोचेगें तो शायद ये अनुभव तर्कसंगत लगे।
अब बात करते हैं समाधान की कि आखिर हम करें क्या टेलिविजन देखना तो छोड़ नहीं सकते, ऐसे दृश्यो पर आंसू आना भी स्वाभाविक है, बच्चो की आंखो पर पट्टी बांधकर भी उन्हें ऐसे दृश्य देखने से रोका नहीं जा सकता पर हमे केवल इतना करना होगा जब भी आपका बच्चा उस धारावाहिक के संबंध में प्रश्न पूछे और बच्चे निश्चित रूप से पूछते ही हैं और न भी पूछे तो उन्हें बिना टाले ये अवश्य बतायें कि टेलिविजन केवल एक खिलौना है मनोरंजन की वस्तु है, उन्हें काल्पनिकता और वास्तविकता में अंतर समझायें। उन्हें बतायें कि टेलिविजन में जो भी घटित हो रहा है वो केवल एक नाटक है जैसे आप अपनी खिलौने की गुड़िया के ब्याह का नाटक करते हो ठीक वैसा ही। वास्तविक तो वह है जो हमारे साथ घटित हो रहा है। धारावाहिक में जो दादी मां चीख-चीख कर अपना दर्द सुना रही है वह वास्तविक नहीं है बल्कि वास्तविक आपकी दादी मां का दर्द है जो उन्हें न सोने देता है न उठने देता है न बैठने देता है। उन्हें अपनी संवेदनायें कहां खर्च करना है ये समझाना आवश्यक है नहीं तो भविष्य में वे भी आपसे ज्यादा टेलिविजन के काल्पनिक पात्रो के प्रति अधिक संवेदनशील होगें।
इति शुभम्।         

    लेखक - अतुल जैन सुराणा

Source : Agency

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